अजय नागर
मिश्री का प्रसाद देने वाले माणक जी भाईसाहब इस दुनिया में नहीं रहे। माणक जी भाईसाहब भुलाने वाले भाईसाहब नहीं हैं। वो हमेशा याद आएंगे। उनकी स्मृतियां हृदय में हमेशा बनी रहेंगी। उनकी याददाश्त इतनी तेज थी, जिससे एक बार मिल लेते थे, उसका नाम सदैव याद रखते थे। मैं भाईसाहब से मिला तो मैं उन्हीं का होकर रह गया। दु:ख में, सुख में, भाईसाहब हमेशा फोन कर हालचाल पूछा करते थे। मेरा भी जब मन हुआ, पाथेय कण भवन जाकर भाईसाहब से मिल लेता था। जब यह समाचार मिला, एकदम से विश्वास नहीं हुआ, भाईसाहब हमारे बीच में नहीं रहे। भाईसाहब की आपातकाल की आपबीती भाईसाहब के शब्दों में…
आपातकाल की घोषणा
26 जून 1975 को प्रातः आपातकाल की घोषणा रेडियो पर रतनगढ़ में सुनी। हम सतर्क हो गए थे। इस प्रकार की घोषणा और उसके बाद सरकार की ओर से धरपकड़ आजादी के बाद प्रथम बार हुई थी। मेरे लिए यह नई बात थी। 27 जून से 3 जुलाई 1975 दोपहर तक अपने गांव में ही रहा। 3 जुलाई की रात्रि में जयपुर पहुंचा। जयपुर रेलवे स्टेशन पर पास की एक दुकान से दूरभाष पर सत्यनारायण जी शर्मा (प्रान्तीय कार्यालय प्रमुख) से बात की। रात्रि 9 बजे कार्यालय पहुंचा। आगे की सूचना एवं योजना पाठक जी से मिलनी थी, अतः आदर्श विद्या मन्दिर, आदर्श नगर गया। थोड़ा-सा सामान साथ लिया, बाकी बड़ा थैला, जो संघ शिक्षा वर्ग से साथ था, प्रातः जाकर ले लूंगा, ऐसा बताकर चला गया।
जयपुर कार्यालय पर छापा
4 जुलाई 1975 को प्रातः जयपुर कार्यालय पर छापा पड़ने से सारा सामान सरकार द्वारा बन्द कर दिया गया। प्रातः सूचनानुसार सोहन सिंह जी के पास एक स्वयंसेवक के मकान पर मिलने गए। जो हमारे उस समय विभाग प्रचारक थे। बैठक में आपातकाल की स्थिति का विरोध करने, जन-जागरण करने तथा समितियां बना सम्पर्क करने के लिए कहा गया। अपने-अपने क्षेत्र में जाने की आज्ञा मिली, परन्तु जाने से पूर्व प्रतिबन्ध की सूचना मिलने से पुनः सोहन सिंह जी से मिलने पहुंचा। उन्होंने अपना वेष बदलने और सतर्क रहकर कार्य करने के लिए कहा तथा 8 जुलाई को पुनः जयपुर आने को कहा।
गिरफ्तारियां शुरू
मैं रात्रि में ही ट्रक से निवाई पहुंचा और वहां सम्पर्क किया। लोगों में भय था। मुझे टोंक जाने की बिल्कुल मनाई कर थी, क्योंकि 4 जुलाई को निवाई से हमारे जिला संघ चालक रामकुमार जी टिक्की-वाल को मीसा में तथा नगर प्रचारक टोंक को भारत सुरक्षा अधिनियम (डीआईआर) में गिरफ्तार कर लिया था। उनसे मेरे विषय में काफी पूछताछ की, परन्तु मेरे एक पत्र, जो 26 जून को रतनगढ़ से लिखा था, के कारण फिर कुछ नहीं कहा। उसी रात्रि में टोंक कार्यालय को भी बन्द कर दिया गया। उस पर भी सरकारी कब्जा हो गया। मैं 4 जुलाई से 24 सितम्बर तक भूमिगत रहकर जिले में घूमता रहा। समय-समय पर बैठकों में जयपुर जाता रहा। पत्रक तथा अन्य समाचारों से जानना, स्वयं-सेवकों से मिलना, एकत्रीकरण, जो वॉलीबाल क्लब होता था, मन्दिरों में भजन-कीर्तन के रूप में तथा अन्य रूपों में चलता रहा। 28 जुलाई को जयपुर में जिला बैठक रखी। उसमें महावीर जी जैन का 9 अगस्त को सत्याग्रह कर गिरफ्तारी देना तय हुआ। 13 जुलाई को पुनः बैठक रखी, जिसमें ललित किशोर जी चतुर्वेदी निवाई आए। दोनों गिरफ्तारियों के लिए मैं 8 व 14 अगस्त को टोंक में आया। इससे पूर्व, 21 जुलाई को रात्रि में टोंक आया, जब उस समय सभी आतंकित थे, क्योंकि 20 जुलाई को हमारे जिला कार्यवाह रामधन जी एडवोकेट को मीसा में गिरफ्तार कर लिया गया था।
मुझे चड्डी-बनियान में ही ले गई पुलिस
अगस्त में सभी स्थानों पर रक्षाबंधन उत्सव मनाया गया। सितम्बर में गुरु-दक्षिणा उत्सव आपातकाल के अनुसार सम्पन्न कराया। 30 अगस्त को जिला बैठक निवाई में रखी, जिसमें विभाग प्रचारक जी पधारे थे। मैं अन्तिम बार विभाग प्रचारक जी से 22 सितम्बर को मिला, जब वे तिलक नगर में एक स्वयंसेवक बन्धु के निवास पर ठहरे थे। 2 अक्टूबर को गांधी जयन्ती मनाने के सम्बन्ध में 23 सितम्बर की रात्रि को बस, ट्रक आदि साधनों द्वारा निवाई पहुंचा। 24 सितम्बर की सायं 5 बजे तक तहसील कार्यवाह रतनलाल जी सांवलिया के मकान पर ही रहा, जब तक पुलिस ने आकर गिरफ्तार नहीं कर लिया। पुलिस ने दिन में 12 बजे टोंक नगर प्रचारक गिरिराज किशोर जी को पकड़ लिया। उन्हें साथ लेकर करीब 5 बजे खोजबीन कर मुझे पकड़ लिया। मुझे चड्डी-बनियान में नंगे पैर पुलिस वाले जीप में बैठा ले गए। भारत माता की जय और इन्दिरा गांधी मुर्दाबाद कहने पर थानेदार जगमोहन सिंह नायक, सोहन सिंह आदि ने मुंह बन्द कर दिया। बाल खींचे और थप्पड़ भी लगाया, जिसकी बाद में मैंने पुलिस अधीक्षक को एक पत्र में टोंक कारागार से शिकायत की।
कारागार में लगने लगी शाखा
पुलिस ने मुझे दो दिन कोतवाली टोंक में रखा। 25 सितम्बर को हमारे जिले के जनसंघ के मंत्री महावीर जी को, जो संघ के स्वयंसेवक थे, लाकर 26 सितम्बर को सायंकाल 5 बजे टोंक कारागार ले गए। वहां हम तोनों को सी-क्लास दी गई, परन्तु हमारे साथियों द्वारा, जिनमें केदार जी अग्रवाल आदि के अनशन करने पर 14 अक्तूबर, विजया दशमी को जिलाधीश टोंक के आदेश पर हमें बी-श्रेणी दी गई। मेरा कारागार आने का प्रथम अवसर था। अन्दर का दृश्य बड़ा नवीन सा लगा। वहां के नियम, संघ के अन्य कार्यकर्ताओं से, जो करीब संख्या में 15 थे, समझने पड़े। वहां हमारे प्रान्तीय बौद्धिक प्रमुख भी थे। उनके मार्गदर्शन में सभी कार्यक्रम चलते थे। जमात-ए-इस्लामी के 5, मार्क्सवादी के 2, जनसंघ के 5, आनन्द मार्गी का एक तथा शेष 12 संघ के कार्यकर्ता थे। प्रातः से सायं तक कुछ बंधे हुए कार्यक्रम होते थे। प्रातः शाखा तथा दिन में 3 बजे सबकी सामूहिक बैठक, जिसमें 1-1 मीसा बन्दी का जीवन परिचय होता था। बाकी इच्छावर्तन था। सायंकाल आरती होती थी, जिसमें पहले रामस्नेही सम्प्रदाय सहित अन्य आरतियां भी होती थीं। अन्त में ॐ जय जगदीश हरे तथा जयकारे होते थे।
कारागार में न खाटें थीं और न लेखन सामग्री
14 नवम्बर 1975 से पूर्व तो हमें पत्र बहुत कम देते थे। सुविधाएं भी नाममात्र की थीं। न तो पूरी खाटें थीं, न लेखन सामग्री और न कारागार द्वारा दिए जाने वाले वस्त्र। अतः समय-समय पर मांगें रख जुलूस निकालते, भाषण देते एवं कारागार अधिकारियों पर दबाव डालकर पूरा करवाते थे, पर वो आश्वासन ज्यादा देते थे, काम कम करते थे। 15 नवम्बर को सायंकाल 5 बजे के करीब सत्याग्रहियों का टोंक नगर से प्रथम जत्था चिरंजीलाल जी सेठ के नेतृत्व में आया। कारागार के बाहर से भारत माता की जय तथा अन्य नारे सुनकर हम सब कारागार के फाटक तक नारे लगाते हुए आए और उनका स्वागत किया। फिर क्रमशः 18 नवम्बर, 23 नवम्बर, 27 नवम्बर, 6 दिसम्बर, 20 दिसम्बर तथा अन्तिम जत्था 23 जनवरी 1976 को आया।
…जब किया जेलर का घेराव
सत्याग्रहियों में महाविद्यालय के विद्यार्थी, जिनमें टोंक महाविद्यालय की छात्र यूनियन का अध्यक्ष भी था और अन्य होनहार विद्यार्थी थे। अपनी पढ़ाई छोड़कर, कुछ दुकानदार दुकानें छोड़कर तथा किसान खेतीबाड़ी छोड़कर आए थे। उनकी व्यवस्था के लिए समिति बनाई गईं, जिसमें पंडित गंगाशंकर जी शर्मा, अजीत सिंह जी सागर, केदार जी अग्रवाल, ओमप्रकाश जी मित्तल तथा महावीर जी जैन प्रमुख थे। उनको ओढ़ने-बिछाने के लिए बिस्तरों के लिए एक बार तो रात्रि में जेलर महोदय का घेराव किया। रात्रि में ही 11-12 बजे बाहर से बिस्तर-कम्बल आए। फिर विद्यार्थियों को परीक्षा की सुविधा दिलाने के लिए पत्र-व्यवहार शुरू किया। अन्त में किसी प्रकार का सहयोग न मिलने पर 23 दिसम्बर से अनशन तथा 2 जनवरी से जेल का फाटक रोक दिया। 6 जनवरी 1976 को पुलिस अधीक्षक दो मोटरें सिपाहियों की भरकर जिलाधीश कार्यालय टोंक पहुंचे। उन्होंने कहा कि आपकी मांगें मानते हैं, अतः दरवाजा खोलो। खिड़कियां खोलते ही पुलिस एक दम घुस गई। तुरन्त आरक्षी अधीक्षक ने 6 बन्धुओं के स्थानांतरण आदेश सुनाए। उसी समय सामान लेकर साथ आने को कहा। हमने भी उनको स्वीकृति दे दी, क्योंकि हम किसी प्रकार की खून-खराबा करना नहीं चाहते थे। उन 6 में सरदार अजीत सिंह जी, जो अपनी दादी की मृत्यु के कारण 12 दिन की पैरोल पर गए थे, बाहर ही थे तथा वहीं से उन्हें जयपुर ले जाया गया।
हर 26 तारीख को मनाते थे काला दिवस
कारागार में हम हर 26 तारीख को काला दिवस मनाते थे। उस दिन इन्दिरा गांधी रूपी इमरजेन्सी का पुतला बना जुलुस निकालते थे, जिसमें प्रमुख नारे गूंजे धरती और आकाश, देश के नेता जयप्रकाश, इंकलाब-इंकलाब, जिन्दाबाद-जिन्दाबाद, संघ पर बैन लगाया है-सोता शेर जगाया है, भारत माता की जय आदि थे। बाद में भाषण, ज्ञापन एवं अन्त में पुतला दहन कर आते थे। जेल में दोनों समय प्रभात व सायं शाखा लगाते थे। मुझे जेल शाखा का कार्यवाह बनाया था। ओमप्रकाश जी आर्य के मार्गदर्शन में दिनभर में व्यस्त कार्यक्रम रहते थे। उससे स्वयंसेवकों का अत्यधिक विकास हुआ। कविता लिखना, भाषण देना तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से कई कार्यक्रम रखते थे। जेल में पत्रकारिता का भी अच्छा अध्ययन किशनलाल जी शर्मा, जिला कार्यवाह सवाईमाधोपुर ने स्वयंसेवकों को कराया। जमानत पर 5-7 को छोड़कर 50 में से कोई गया नहीं। प्रकाश जी शर्मा, जो जेल में ही स्वयंसेवक बना, उसके गांव के सरपंच आदि के दबाव एवं भाई, जो पुलिस में थे, के कहने पर भी जमानत नहीं कराई। बरी होने पर ही कारागार से गया।
कुछ सिपाहियों ने जोखिम उठा किया सहयोग
कारागार के सिपाही शुरू-शुरू में बड़ा भय दिखाते थे, परन्तु हम जब जेल में गए, तब तक हमारे साथियों के महत्व को समझ, हमारे व्यवहार को देख, कुछ नहीं कहते थे। उनमें से कुछ ने तो सब प्रकार की जोखिम उठाकर भी सहयोग किया। उनमें एक तो अविस्मरणीय है। पहले कैदियों को खाना खराब, सड़ा गला देते थे। उनको पीटना, उनकी मिलाई में आई वस्तुओं में से कर रूप में काट लेना चलता था, पर हमारे डर से सब बन्द हो गया। एक बार तो हमारे एक साथी ने हैड वार्डन को इतना डांटा कि वह घबरा कर वहां से तुरन्त चला गया। जेल के अन्दर कैदियों का मन भी कैदी हो जाता तथा सब प्रकार से गुलाम बन जाता है। अधिकारी अपने आपको उनके मालिक समझ मनमाना करते हैं। जो हम सबके रहने से दूर हुआ। मई 1976 में तीन बन्धु मीसा में लाए गए, जो संघ के कार्यकर्ता थे। जून 1976 को काला दिवस मनाया गया। उसमें देवली तहसील से 10 बन्धुओं को डीआईआर में गिरफ्तार किया। 3 अगस्त को तीन बन्धुओं को पुनः काला दिवस के दिन वारंटों से पकड़ कर लाए।
16 मार्च 1977 तक छूटे सभी सत्याग्रही
17-18 फरवरी 1976 से अधिकारियों की बाहर से आज्ञा आने पर जमानत पर जाना शुरू हुआ। 16 मार्च 1977 तक सभी सत्याग्रही जा चुके थे। सिवाय उन 10 स्वयंसेवकों के जो जयपुर एवं अजमेर जेल में थे। अन्दर रहे। जाते समय प्रमुख 12 बन्धुओं से सम्पर्क किस प्रकार से करना, यह तय कर लिया था, क्योंकि टोंक कारागार में मिलाई जेलर के कमरे में होती थी। वहां ही पुलिस इन्सपेक्टर बैठा रहता था। अतः कोई भी ऐसा पत्र, जो आवश्यक सूचना का होता था, नहीं दे सकते थे। जेलर (प्रभारी अधिकारी जेल) बड़ा डरपोक, वहमी तथा अपने आप को कानून का तथा सरकार का वफादार मानने के कारण, हर चीज को देख-देखकर देने देता था। अतः जेल की दीवार के बाहर आकर खड़ा होता, संकेत देता तथा मैं वापस जब जवाब देता था, तब छोटी-छोटी थैलियों से रखकर आदान-प्रदान करते थे।

