राजे युग का पटाक्षेप ना चाहते हुए भी केंद्र की राजनीति में ही देखना होगा अपना भविष्य

राजेंद्र राज, वरिष्ठ पत्रकार

भाजपा के कभी कद्दावर नेता रहे घनश्याम तिवाड़ी (Ghanshyam Tiwari) अंततः घर लौट आए। तिवाड़ी 21 माह पहले कांग्रेस (congress) में शामिल हुए थे। जल्दी ही उनका मोहभंग हो गया। उन्हें उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (cm ashok gehlot) उन्हें सत्ता में भागीदारी देंगे। किसी बोर्ड या आयोग का अध्यक्ष बना देंगे। लेकिन, पूर्व उप मुख्यमंत्री व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट (sachin pilot) की बगावत के बाद कांग्रेस में नए हालात बने हैं। उनसे उन्हें समझ में आ गया कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अब पहली जैसी जादूगरी नहीं दिखा सकते। इसलिए कांग्रेस से रुखसत करने में ही समझदारी है। घर वापसी पर आयोजित प्रेस वार्ता में तिवाड़ी ने सफाई दी कि उन्होंने कभी भी कांग्रेस की सदस्यता नहीं ली थी। वे कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी शामिल नहीं हुए थे। वे जन्म से ही भाजपा (bjp) के साथ है। उनके विचारधारा पूर्ण रूप से भाजपा की है। उनके रंग-रंग में भाजपा समाई हुई है। 

भगवा रंग में रंगे तिवाड़ी उम्र के आखिरी दौर में राजनीतिक परिपक्वता दर्शाने से चूक गए हैं। अपनी अलग पार्टी बनाने से लेकर कांग्रेस तक की यात्रा से उजागर होता है कि अपने को चाणक्य समझने की उनकी रणनीति बुरी तरह से विफल साबित हुई है। इस प्रकरण से उन पर यह कहावत सटीक सिद्ध हो रही है कि चौबे जी छब्बे बनने चले थे और दुबे बनकर रह गए।

73 वर्षीय तिवाड़ी को भाजपा में शामिल होते समय यह अच्छी तरह से आभास होगा कि अब भाजपा में उन्हें पहले जैसी स्थिति हासिल नहीं होगी। अपनी पैठ बनाने के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। भाजपा नेताओं से पुराने रसूखों के बल पर उम्र के आखिरी पड़ाव में उन्हें सत्ता सुख मिल सके, ऐसा सोचना तो दूर की कौड़ी होगी। लेकिन, वे अपने पुत्र को राजनीति में स्थापित कर सकें, ऐसी जरूर उनकी कामना होगी।

राजे गुट को सन्देश

यह भविष्य के गर्भ में है कि तिवाड़ी को भाजपा में आने का क्या लाभ मिलता है। लेकिन, राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि आलाकमान ने तिवाड़ी की घर वापसी करा कर उन नेताओं के संदेश जरूर दे दिया है जो वसुंधरा राजे (vasundhra raje) कार्यशैली से खफा होकर पार्टी से विदा ले चुके थे। ऐसे नेताओं में मानवेंद्र सिंह, सुरेंद्र गोयल, सुभाष महरिया, राजकुमार रिणवा व अन्य कई है। इन्होंने निर्दलीय से लेकर कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर भाजपा के खिलाफ चुनाव मैदान में ताल ठोंकी थी। इस के बावजूद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया (satish poonia) ने अन्य नेताओं के भाजपा में शामिल होने के  बारे में संकेत दिया है।

बनाई थी अपनी पार्टी

तिवाड़ी से काफी समय पहले ही डॉ. किरोड़ी लाल मीणा भी पार्टी में लौट आए थे। किरोड़ी लाल मीणा की अपने समाज में खासी पैठ है। इसलिए उनकी वापसी में पार्टी को फायदा नजर आया। इससे उनकी वापसी ससम्मान हो गई।

एक समय तिवारी और किरोड़ी दोनों ही नेता पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कट्टर विरोधियों में थे। राजे पर भ्रष्टाचार, कार्यकर्ताओं का सम्मान नहीं करने,  संगठन को साथ नहीं लेने जैसे अनेक गम्भीर आरोप लगाए थे। राजे की कार्यशैली की शिकायतों पर केंद्रीय नेतृत्व की अनसुनी के चलते दोनों नेता शनै-शनै पार्टी विरोधी होते गए। तब के हालातों में केंद्रीय नेतृत्व का स्पष्ट संदेश था कि वे राज्य में वसुंधरा के नेतृत्व को चुनौती देने वाले किसी नेता को तवज्जों नहीं देंगे।

केंद्रीय नेतृत्व पर राजे का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता गया। इससे राज्य में उनकी स्थिति एक क्षत्रप की बन गई। हालात ऐसे बन गए कि राजे विरोधियों ने चुप रहने में ही अपनी समझदारी समझी। लेकिन, मीणा, तिवाड़ी, देवी सिंह भाटी, हनुमान बेनीवाल आदि को यह गवारा नहीं हुआ। राजे के वर्चस्व के चलते इन नेताओं को अपना भविष्य अंधकार में लगने लगा। वे पार्टी से दूर होते गए।

कालांतर में डॉ. किरोड़ी और तिवाड़ी ने अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टी बनाई और अपना शक्ति दिखाने की कोशिश की। इस मुकाबले में तिवाड़ी से किरोड़ी भारी रहे। वे अपने साथ ही कई प्रत्याशियों को भी विधायक चुनवाने में सफल रहे, जबकि तिवाड़ी सांगानेर विधानसभा चुनाव में स्वयं अपनी जमानत भी जप्त करा बैठे।

पुराना है अदावत का इतिहास

तिवाड़ी अपने वाक् चातुर्य और राजनीतिक कौशल के कारण कभी भाजपा में प्रमुख स्तंभ के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन, वसुंधरा राजे से उनकी अदावत पुरानी है। प्रदेश के लोगों को राजे का पिछला कार्यकाल याद होगा। दोनों नेताओं में तभी से टकराव की राजनीति चल रही है। जब पूर्व मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत के उप राष्ट्रपति बनने के बाद प्रदेश की कमान झालावाड़ से सांसद रही वसुंधरा राजे को सौंपी गई थी। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद राजे और तिवाड़ी के बीच वैचारिक और नीतिगत निर्णय को लेकर टकराव रहा।

वर्ष 2003 में प्रदेश में पहली बार 120 सीटों के स्पष्ट बहुमत से भाजपा की सरकार बनी। इस जीत का सेहरा वसुंधरा राजे के सिर बंधा और वे मुख्यमंत्री बनी। उनके मंत्रिमंडल में तिवाड़ी को सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी दी गई। लाखों युवाओं को रोजगार मिलने और तबादलों में असंतोष नहीं पनपने से प्रशासनिक पकड़ के साथ ही राजनीतिक संतुलन साधने से  तिवाड़ी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ।

यही वह दौर था जब केंद्र में जसवंत सिंह और प्रदेश में ललित किशोर चतुर्वेदी, गुलाबचंद कटारिया, घनश्याम तिवारी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े नेता राजे के खिलाफ मैदान में उतरे। पूरे प्रदेश में असंतोष की लहर दौड़ पड़ी। वसुंधरा जैसे-तैसे से इस संकट से बाहर निकली और विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही मंत्रिमंडल में फेरबदल कर शिक्षा से हटाकर तिवाड़ी को खाद्य और विधि विभाग की जिम्मेदारी दे दी। ये विभाग उनके कद से कमतर थे। इस से मनमुटाव और बढ़ा।

चुनाव से पहले कई वरिष्ठ नेताओं के मुख्यमंत्री राजे के खिलाफ भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगाने से पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। चुनाव बाद तिवाड़ी और राजे के बीच वैचारिक मतभेद और बढ़ते गए। इस के चलते लाख कोशिशों के बावजूद भी तिवाड़ी नेता प्रतिपक्ष नहीं बन पाए। इसी दौरान जयपुर के सांसद गिरधारी लाल भार्गव के निधन के बाद लोकसभा चुनाव में घनश्याम तिवाड़ी को टिकट दिया गया। तब तिवाड़ी समर्थकों ने आरोप लगाया कि संगठन के नहीं लगने और कई पदाधिकारियों के अंदर खाने भितरघात करने से ही वे चुनाव हारे हैं। तब कांग्रेस के महेश जोशी मात्र 10000 मतों से जीते।

नेताओं के बढ़ते टकराव को देखते हुए केंद्र को दखल देना पड़ा और प्रदेश अध्यक्ष पद से वसुंधरा राजे को हटाकर अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह परास्त करके दो तिहाई से अधिक बहुमत प्राप्त किया राजे फिर से मुख्यमंत्री बनी। लेकिन, मंत्रिमंडल में तिवारी को शामिल नहीं किया गया। यही लोकसभा चुनाव में जयपुर से तिवारी ने टिकट मांगा। लेकिन, मुख्यमंत्री राजे के विरोध के चलते उन्हें टिकट नहीं मिला।

राजे की कृपा से कभी तिवाड़ी के शरणागत रहे जिला प्रमुख रामचरण बोहरा को टिकट दिया गया। जो रिकॉर्ड मतों से जीते इसके बाद अदावत और और बड़ी। बाद में जयपुर नगर निगम के चुनाव के दौरान सांगानेर क्षेत्र से तिवाड़ी के एक भी समर्थक को टिकट नहीं मिला। सभी टिकटें सांसद बोहरा के समर्थकों को मिली। बढ़ते टकराव का नतीजा रहा कि घनश्याम तिवाड़ी राजे विरोध के चलते पार्टी विरोधी हो गए और उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी। अपना राजनीतिक वर्चस्व बताने के लिए पार्टी बनाई। जिसका बुरा हश्र हुआ। स्वयं तिवाड़ी विधानसभा चुनाव में अपनी जमानत तक नहीं बचा सके।

राजे युग के अंत की शुरुआत

किरोड़ी के बाद तिवाड़ी की वापसी पर पूनिया का अन्य नेताओं की घर वापसी का संकेत राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। याद रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री व भाजपा के कद्दावर नेता जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे मानवेंद्र सिंह की घर वापसी का मुद्दा भी चर्चा में आया था। भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए मानवेंद्र सिंह को रणनीति के तहत पहले वसुंधरा राजे के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा गया। हार के बाद उन्हें बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा का चुनाव में उतारा गया। मानवेंद्र सिंह दोनों ही चुनाव हारे। इन नेताओं के भाजपा में शामिल होने से निश्चित ही संगठन को मजबूती मिलेगी। वहीं, राजे को झटका लगेगा। लगता है, भाजपा आलाकमान इसी दिशा में अग्रसर है।

केंद्रीय नेतृत्व ने प्रदेश में सत्ता गंवाने के बाद वसुंधरा राजे को अनेक तरह से यह संदेश देने की कोशिश की है कि अब वे पार्टी नेतृत्व के फैसलों को बिना नुक्ताचीनी के सर माथे पर लें। पहले के ढुलमुल रवैए से इतर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने केंद्रीय नेतृत्व की एक सशक्त पहचान दी है। अब प्रदेश के क्षत्रप पार्टी संगठन को अपने इशारों पर नहीं चला सकते।

राजे के कट्टर विरोधी रहे हनुमान बेनीवाल (hanuman beniwal) से लोकसभा चुनाव में समझौता। इससे पहले किरोड़ी लाल मीणा को राज्य सभा में भेजना। और अब तिवाड़ी की घर वापसी। क्या इससे यह संकेत मिलता है कि राजस्थान में अब वसुंधरा राजे युग के अंत की शुरुआत हो गई है। जैसे कभी वसुंधरा राजे को राज्य की राजनीति में स्थापित करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत को केंद्र में सक्रिय किया गया। वैसे ही अब राजे को ना चाहते हुए भी केंद्र की राजनीति में ही अपना भविष्य देखना होगा। राजस्थान की राजनीति से उनका दखल अब धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ेगा।

(लेखक के निजी विचार हैं)